काम के दम पर जीती दिल्ली..नतीजों ने राजनीतिक पर्यवेक्षकों, विश्लेषकों, रणनीतिकारों के सारे आकलन गलत साबित कर डाले.!

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New Delhi…
अगर मध्यकालीन भारत को गौर से देखें तो दिल्ली की सत्ता के लिए कई कुर्बानियां दी गर्इं। वहीं आधुनिक भारत में सत्ता का केंद्रीकरण चेन्नई, मुंबई, कलकत्ता होते हुए दिल्ली तक पहुंचा। इस बार के दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान एक तरफ केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी ने प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री, तमाम कैबिनेट मंत्री और दिग्गज नेताओं को मैदान में उतारा। इन्होंने दिल्ली का चुनाव अपने परंपरागत शैली ‘राष्ट्रवाद’ और ‘धर्म’ के आधार पर लड़ा। दूसरी तरफ नई नवेली पार्टी, जिसका उद्भव हुए मात्र छह वर्ष हुए हैं, इसने पिछले पांच वर्षों के कामकाज के आधार पर चुनाव मैदान में उतरी।
आम आदमी पार्टी की तरफ से दिल्ली की कमान मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने संभाली। ‘आप’ ने पिछले पांच वर्षों में दिल्ली में शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी जैसे मूलभूत मुद्दे पर चुनाव को लड़ा। एक तरफ इनके ऊपर यह आरोप भी लगे कि जनता के टैक्स के पैसे का दुरुपयोग कर रहे हैं, लेकिन संविधान में ‘नीति-निदेशक तत्त्व’ के अंतर्गत लोककल्याण कारी राज्य की अवधारणा भी निहित है। इसी लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा को दिल्ली की जनता ने सराहा है।

*प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, पार्टी अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित कई दिग्गजों की सभाएं भी मतदाताओं का मन क्यों नहीं बदल पाईं?*

*केंद्र के साथ तालमेल बना कर चलना अरविंद केजरीवाल के लिए बड़ी चुनौती..!*

दिल्ली की जनता ने एक बार फिर से सत्ता आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ को सौंप कर उसके कामकाज और उपलब्धियों पर मुहर लगा दी है। ‘आप’ को इस बार भी साठ से ज्यादा सीटें मिली हैं। पिछली बार सड़सठ सीटें थीं। अहम यह है कि पार्टी लगातार जोरदार बहुमत और लोगों का भरोसा लेकर तीसरी बार सत्ता में आई है। यह इस बात का प्रमाण है कि इस सरकार ने पिछले पांच साल में शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली-पानी जैसी बुनियादी जरूरतों से जुड़े जो काम किए, वे जनता को रास आए। इसके अलावा, दिल्ली परिवहन निगम की बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्रा की सुविधा जैसे कदमों ने भी चमत्कार दिखाया। बिजली-पानी के बिलों में कटौती से लोग खुश हैं ही। आम आदमी पार्टी की यह जीत इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि आठ महीने पहले हुए लोकसभा में उसे दिल्ली की सभी सातों सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा था। तभी से इस तरह के कयास शुरू हो गए थे कि इस बार पार्टी को पहले जैसी जीत मिलना आसान नहीं होगा और दिल्ली की सत्ता में बदलाव हो सकता है। लेकिन ‘आप’ के कामों ने इस तरह के सारे गणित और आकलनों को गलत साबित कर डाला।
दिल्ली का यह चुनाव मुख्य रूप से आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बीच था। लेकिन लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीतने वाली भाजपा की उम्मीदें दिल्ली में सरकार बनाने को लेकर एक बार फिर ध्वस्त हो गर्इं। जाहिर है, भाजपा के लिए इससे ज्यादा निराशाजनक क्षण नहीं होगा। महाराष्ट्र, झारखंड का सदमा पहले से ही था। दिल्ली की सत्ता के लिए इस बार भी भाजपा ने जिस तरह से ताकत झोंकी, घर-घर पार्टी कार्यकर्ताओं ने पहुंच बनाई, प्रचार-प्रसार के लिए आइटी सेल से लेकर चुनावी सभाओं तक में भाजपा ने आम आदमी पार्टी को पीछे छोड़ दिया था। इससे यह संकेत देने की कोशिश की गई कि भाजपा के साथ पूरा सत्ता तंत्र है, ऐसे में उसे इस बार हराना आसान नहीं होगा। लेकिन नतीजों ने राजनीतिक पर्यवेक्षकों, विश्लेषकों, रणनीतिकारों के सारे आकलन गलत साबित कर डाले। इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, पार्टी अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित कई दिग्गजों की सभाएं भी मतदाताओं का मन क्यों नहीं बदल पाईं? आखिर क्यों नहीं लोगों ने भाजपा या कांग्रेस को चुना?
हालांकि दिल्ली विधानसभा का चुनाव ऐसे माहौल में हुआ है जब देश में नागरिकता संशोधन कानून, एनआरसी जैसे मुद्दों पर आंदोलन हो रहे हैं। दिल्ली के शाहीनबाग में दो महीने से धरना जारी है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया की हिंसक घटनाओं, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ जैसे दुष्प्रचार से भी मतदाता विचलित हुए। रही-सही कसर चुनावी भाषणों में मुसलिम समुदाय को लेकर उगले गए जहर ने पूरी कर दी। इससे दिल्ली की जनता में गलत और नकारात्मक संदेश ही गया। जहां तक सवाल है कांग्रेस का, तो देश में सबसे ज्यादा राज करने वाली इस पार्टी ने भी लोगों को हताश ही किया। भले चार राज्यों में कांग्रेस की सरकार हो, पर दिल्ली की जनता का उससे मोहभंग हो चुका है। दिल्ली विधानसभा में इस बार भी मजबूत विपक्ष का अभाव रहेगा। आम आदमी पार्टी की सरकार के पास बहुमत भले हो, लेकिन उसकी मुश्किलें कम नहीं होने वाली। केंद्र और उपराज्यपाल के साथ जिस तरह का टकराव देखने को मिलता रहा है और कई बार सरकार लाचार स्थिति में आ जाती है, उससे कामकाज प्रभावित होता है। ऐसे में केंद्र के साथ तालमेल बना कर चलना अरविंद केजरीवाल के लिए बड़ी चुनौती होगी.
Desk Report TRP News..

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