मोदी-शाह का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ क्यों नहीं चाहते संघ प्रमुख ?

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भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता भले ही ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की बात करते हों, लेकिन आरएसएस के संघ प्रमुख मोहन भागवत इससे इत्तेफ़ाक नहीं रखते.

एक किताब के विमोचन के मौके पर उन्होंने कहा, “ये सब राजनीतिक नारे हैं. आरएसएस की ये भाषा नहीं है.”

“मुक्ति शब्द राजनीति में उपयोग होता है. हम कभी किसी को अलग करने की भाषा का उपयोग नहीं करते.”

संघ प्रमुख ने कहा कि नकारात्मक सोच वाले सिर्फ़ विवाद और बंटवारे की बात ही सोच सकते हैं…

संघ प्रमुख ने अपने सबसे लायक स्वयंसेवक के काँग्रेस-विरोधी अभियान को सार्वजनिक मंच से अस्वीकार किया है. इसके गंभीर मायने हैं. पर इसके ये मायने क़तई नहीं हैं कि मोदी और भागवत का हनीमून अब ख़त्म हो रहा है.

मोहन भागवत के इस बयान से ये सतही नतीजा निकालने की ग़लती भी नहीं की जानी चाहिए कि संघ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच पिछले चार पाँच साल से चली आ रही जुगलबंदी में ग़लत सुर लगने शुरू हो गए हैं.

अच्छा तालमेल

नरेंद्र मोदी-अमित शाह और संघ के समूह-नृत्य में पिछले पाँच बरस के दौरान एक भी उलटा-सीधा स्टेप नहीं पड़ा. जब ज़रूरत पड़ी मोहन भागवत ने मोदी सरकार का समर्थन किया, सराहना की और प्रवीण तोगड़िया जैसों को चुप भी कराया.

इसी तरह मोदी ने आरएसएस को हर तरह का सरकारी समर्थन दिया, उसके स्वयंसेवकों को महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर बैठाया, संघ के अधिकारियों को दूरदर्शन पर खुलकर प्रचार-प्रसार करने की छूट दी और ख़ुद भी हर मंच से संघ के विचारों को आगे बढ़ाया.

संघ को 2014 के चुनावों से पहले ही अंदाज़ा हो गया था कि नरेंद्र मोदी की बढ़ती निजी लोकप्रियता को नज़रअंदाज़ करना बहुत बड़ी राजनीतिक भूल होगी, इसलिए राजनीतिक लक्ष्य को सबसे ऊपर रखने की अपनी पुरानी परंपरा को क़ायम रखते हुए संघ ने लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे पुराने नेताओं को किनारे करना स्वीकार किया.

वाजपेयी के सत्ता से हटने के बाद यूपीए के शासन के दौरान आरएसएस पूरे दस साल तक राजनीतिक वियाबान में रहा और उसे इसके नुक़सान का अच्छी तरह अंदाज़ा हो गया था.

गुजरात में 2002 में हिंदुत्व के विचार और राजनीति को अच्छी तरह स्थापित करने वाले नरेंद्र मोदी का बेहतर विकल्प संघ के पास नहीं था.

नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए संघ और विश्व हिंदू परिषद के कुछ स्थानीय नेताओं को किनारे भले ही कर दिया हो, उन्हें मालूम था कि पूरे हिंदुस्तान का नेता बनने के लिए उन्हें संघ के स्वयंसेवकों की हर क़दम पर ज़रूरत पड़ेगी.

चुनाव के बाद जब मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो संघ के “पोंगापंथी” विचारों से असहमत खुले बाज़ार के हिमायती पत्रकारों-विश्लेषकों सहित हिंदुस्तान की नई ‘कॉरपोरेट-केंद्रित राजनीति’ के पैरोकारों ने ये सोचकर कूल्हे मटकाने शुरू कर दिए थे कि ‘मोदी अपने आगे किसी की नहीं चलने देते और अब वो संघियों को उनकी जगह बता देंगे’. पर मोदी और भागवत ने अब तक उन सबको ग़लत साबित किया है.

मोदी से ऐतराज़?

तो फिर चार-पाँच साल बाद अचानक ऐसा क्या हुआ कि भागवत अपने सबसे लायक़ स्वयंसेवक नरेंद्र मोदी के कांग्रेस-मुक्त भारत के नारे पर खुलेआम ऐतराज़ जताने लगे? राजनीति से संघ के संबंधों को समझने और राजनीति के बारे में संघ के नेताओं के विचारों को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा.

संघ के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उर्फ़ ‘गुरूजी’ राजनीति को दोयम दर्जे का कर्म समझते थे. उन्होंने राजनीति में कभी रुचि नहीं ली.

उन्होंने जनसंघ की स्थापना के समय संघ से राजनीति में जाने वाले स्वयंसेवकों से कहा था – आप चाहे जितने ऊँचाई पर पहुँच जाएँ, आपको लौटकर धरती पर ही आना पड़ेगा. वो हमेशा संघ को राजनीति से ऊपर मानते थे.

आज मोहन भागवत भी संघ के एक शक्तिशाली स्वयंसेवक को संकेतों में यही समझा रहे हैं कि भले ही राजनीति में आप बहुत ऊँचे ओहदे पर पहुँच गए हों, लेकिन संगठन आपसे ऊपर है. संगठन की वजह से आप राजनीति में ऊँचे उठ पाए हैं, आपके राजनीति में उठने की वजह से संगठन यानी आरएसएस ऊँचाई हासिल नहीं कर रहा है.

संघ ख़ुद को भारत राष्ट्र के स्वयंभू कस्टोडियन के तौर पर देखता है और उसके स्वयंसेवक मानते हैं कि इस राष्ट्र को विधर्मियों, विदेशियों और आंतरिक शत्रुओं के हमलों से बचाने की प्रमुख ज़िम्मेदारी आरएसएस की ही है. यही कारण है कि मोहन भागवत कहते हैं कि दुश्मनों से युद्ध करने के लिए सेना को तैयार होने में छह महीने लग सकते हैं पर संघ के स्वयंसेवकों को लेंगे तो तीन दिन में तैयार हो जाएंगे.

मोहन भागवत की इस परोक्ष झिड़की का एक और कारण है.

रोज़गार पैदा करने में मोदी सरकार की असफलता, नोटबंदी और जीएसटी के कारण छोटे-बड़े उद्योगपतियों और बिज़नेसवालों में असंतोष, बैंक घोटाले, किसानों की बढ़ती हताशा, दलितों में विभिन्न कारणों से बढ़ते ग़ुस्से ने नरेंद्र मोदी की हैसियत पर असर डाला है.

मीडिया में इस तरह की रिपोर्टें भी आने लगी हैं कि संघ में बीजेपी के प्रति बढ़ते असंतोष ने संघ की चिंता बढ़ा दी है.

चुनाव नतीजों पर होगा असर?

अगर इन स्थितियों का असर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजों पर पड़ता है और बीजेपी को हार का सामना करना पड़ता है तो मोदी ख़ुद को उस ऊँचाई पर बनाए नहीं रख पाएँगे जिस ऊँचाई पर वो 2014 में थे.

मोदी का मुक़ाबला 2019 के लोकसभा चुनावों में करने के लिए समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल काँग्रेस, राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी और तेलंगाना राष्ट्र समिति का सक्रिय होना भी संघ के लिए चिंता का विषय है. आज नरेंद्र मोदी लोकप्रियता के शिखर पर भले ही हों, पर ये नहीं कहा जा सकता कि ये स्थितियाँ भविष्य में भी बदस्तूर बनी रहेंगी.

संघ के काम करने के तरीक़ों पर नज़र रखने वाले जानते हैं कि जिस संगठन ने बलराज मधोक जैसे प्रखर और क़द्दावर हिंदुत्ववादी नेता को दूध की मक्खी की तरह छिटकाने में परहेज़ नहीं किया और उग्र हिंदुत्व के प्रतीक बन चुके लालकृष्ण आडवाणी तक को मोहम्मद अली जिन्ना की प्रशंसा करने की सज़ा देते हुए किनारे लगा दिया, वो किसी भी नेता को सिर्फ़ तभी तक स्वीकार करेगा जब तक वो लोकप्रियता के शिखर पर रहने के साथ-साथ संघ के एजेंडा को आगे बढ़ाता रहेगा.

पर अभी नरेंद्र मोदी के साथ वो स्थिति नहीं आई है.

अभी तो मोहन भागवत ने बस इतना सा ही कहा है कि राजनीतिक दल अपने हिसाब से नारे गढ़ते रहते हैं, पर ये कोई ज़रूरी नहीं है कि संघ भी उन नारों से सहमत हो.

ये सिर्फ़ इशारा है कि संघ काँग्रेस को ठीक उस नज़र से नहीं देखता जिस तरह से सत्ता के खेल में उससे भिड़ने वाले मोदी देखते हैं. मोदी के लिए अपनी राजनीति का रास्ता निष्कंटक बनाने के लिए भारत को काँग्रेस-मुक्त करना ज़रूरी है, पर संघ के लिए पूरी भारतीय राजनीति को हिंदुत्व के रंग में रंगना और हिंदुत्व को हर राजनीतिक पार्टी की मजबूरी बना देना ज़्यादा ज़रूरी है.

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