‘संभावित’ गठबंधन में मलाई कौन खाएगा ?

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उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच आगामी लोक सभा चुनाव में गठबंधन लगभग तय होने के बाद जहां इसे अंतिम रूप देने की कोशिशें हो रही हैं वहीं गठबंधन को लेकर कई तरह की आशंकाएं और सवाल भी उठ रहे हैं.

पिछले दिनों राज्य सभा चुनाव के बाद एक अहम सवाल यह भी उठ रहा है कि सपा-बसपा गठबंधन से ज़्यादा फ़ायदा सपा को होगा या फिर बसपा को.

गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव जीतने के बाद सपा और बसपा के कार्यकर्ता एक साथ जश्न मना रहे थे और भविष्य को लेकर आशान्वित भी थे.

लेकिन पिछले दिनों राज्य सभा चुनाव में जब बीएसपी उम्मीदवार हार गया तो ये सवाल उठने लगा कि क्या सिर्फ़ बसपा ही अपने वोट सपा को दिला पाती है?

हालांकि लोक सभा चुनाव और राज्य सभा चुनाव में काफ़ी अंतर होता है, लेकिन ये सवाल अब 2019 में होने वाले लोक सभा चुनाव के संदर्भ में भी पूछा जा रहा है.

‘बीजेपी का नुक़सान तय’

वरिष्ठ पत्रकार सुनीता ऐरन कहती हैं कि गठबंधन से फ़ायदा किसे ज़्यादा होगा, इससे ज़्यादा अहम सवाल ये है कि नुक़सान किसे होगा.

सुनीता ऐरन कहती हैं, “पिछले लोक सभा चुनाव में तो सपा का कोर मतदाता यानी यादव वर्ग भी बीजेपी की ओर चला गया था, लेकिन मायावती का मतदाता कहीं और नहीं जाता और उसने हर चुनाव में ये साबित भी किया है. फ़ायदा अभी कई बातों पर निर्भर रहेगा, मसलन, सीटों का बँटवारा कैसे होता है, किस सीट पर कौन सा कैंडिडेट है, कांग्रेस भी महागठबंधन में आती है या नहीं. लेकिन एक बात तो तय है कि बीजेपी को उससे नुक़सान ही होगा.”

दरअसल, बीएसपी के समर्पित मतदाताओं की वजह से ऐसा कहा जाता है कि वो अपने वोट किसी भी पार्टी या किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में ट्रांसफ़र करा सकती है.

‘बसपा का वोटर बैंक वफ़ादार’

लेकिन दूसरी ओर समाजवादी पार्टी पर यही बात लागू नहीं होती. सुनीता ऐरन कहती हैं कि सपा का सबसे बड़ा समर्थक वर्ग पिछले साल सपा से ही दूर चला गया था जबकि बसपा के साथ ऐसा नहीं हुआ.

बसपा को सीटें भले ही कम मिलीं लेकिन उसके वोट प्रतिशत में कोई कमी नहीं आई.

जानकारों के मुताबिक गठबंधन से निश्चित तौर पर दोनों दलों को फ़ायदा होगा और बीजेपी के सामने अपने गढ़ कहे जाने वाले इलाक़ों में भी मुश्किल हो सकती है.

हालांकि पहले तो सवाल ये भी पूछा जा रहा था कि क्या गठबंधन के बावजूद दोनों दलों के कार्यकर्ता एक साथ आ पाएंगे?

लेकिन इस सवाल का जवाब काफी हद तक लोक सभा उपचुनाव के बाद मिल गया जब गोरखपुर और फूलपुर में बसपा के सहयोग से सपा ने जीत दर्ज की.

कार्यकर्ताओं का कहना था कि उनका मक़सद बीजेपी को हराना है और इसके लिए उन्हें किसी से गठबंधन की ज़रूरत पड़ेगी तो पार्टी को करना चाहिए.

वहीं गेस्ट हाउस कांड जैसी घटना को भी लगभग भूलकर मायावती का समाजवादी पार्टी से गठबंधन करना काफी मायने रखता है.

जानकारों के मुताबिक राज्य सभा चुनाव के बाद जिस तरह से मायावती ताबड़तोड़ प्रेस कॉन्फ्रेंस करके गेस्ट हाउस कांड मामले में भी अखिलेश को क्लीन चिट दी और अखिलेश ने उन्हें धन्यवाद दिया, गठबंधन तो तय है ही, दोनों नेताओ की परिपक्वता भी झलकती है.

हालांकि जानकारों का ये भी कहना है कि गठबंधन का बन पाना और न बन पाना अभी कई परिस्थितियों पर निर्भर करेगा.

बीएसपी को ज़्यादा फ़ायदा

वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं कि 2019 के लोक सभा चुनाव में यदि ज़्यादा फ़ायदे की बात करें तो निश्चित तौर पर वो बीएसपी को होगा.

उनके मुताबिक, “आज की स्थिति में मायावती शून्य पर हैं, राज्य सभा में भी और लोक सभा में भी दूसरी ओर विधान सभा में उनका स्कोर अब तक का सबसे कम है. उन्हें जो कुछ भी सीटें मिलेंगी, उनका फ़ायदा होगा. दूसरा अभी उन्हें ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग के जो लोग वोट देने से झिझक रहे होंगे, वो भी उन्हीं की ओर आएंगे. साथ ही, इन वर्गों में मायावती इन नेताओं के ज़रिए सेंध भी लगा लेंगी, भले ही ये वोट अस्थाई हो.”

जानकारों के मुताबिक इन सवालों के जवाब के लिए अभी ये देखना होगा कि गठबंधन की शक्ल क्या होती है, कांग्रेस गठबंधन में शामिल होती है या नहीं.

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लेकिन ये बात तो तय है कि 2019 में स्थिति 2014 के लोक सभा चुनाव जैसी नहीं होगी, न तो बीजेपी के लिए न कांग्रेस के लिए और न ही सपा-बसपा के लिए.

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