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भाजपा इन दिनों फूलपुर और गोरखपुर में मिली हार के ज़ख़्म सहला रही है.
उत्तर प्रदेश विधानसभा में राज्यसभा चुनावों की लड़ाई में बसपा के जबड़े से जीत छीनने वाला मरहम कुछ काम ज़रूर आया, लेकिन दो अहम लोकसभा सीट पर हार पचाना आसान नहीं.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की सीटों पर मिली हार को लेकर अभी मंत्रणा चल रही है कि अगली चुनौती भी सामने आ खड़ी हुई है.
भाजपा और सपा-बसपा (या सिर्फ़ सपा) के बीच अगला चुनावी युद्ध कैराना की धरती पर लड़ा जाएगा.
कैराना में उप-चुनाव की ज़रूरत इसलिए आन पड़ी क्योंकि भाजपा के नेता और इस सीट से सांसद रहे हुकुम सिंह का निधन हो गया. चुनाव की तारीख़ का एलान अब तक नहीं हुआ है, लेकिन माहौल बनना शुरू हो गया है.
ऐसी ख़बरें भी आई थीं कि अपना उम्मीदवार न खड़ा कर गोरखपुर और फूलपुर में समाजवादी पार्टी के दावेदार का साथ देकर बड़ी राहत देने वाली मायावती ने आगे किसी उप-चुनाव में सपा का साथ न देने का फ़ैसला किया है.
मायावती उप-चुनाव में साथ देंगी?
लेकिन इन्हीं ख़बरों के बीच दो बार भाषण देते हुए मायावती ने साफ़ कर दिया कि राज्यसभा चुनावों में भाजपा ने ‘चालाकी’ कर भले बाज़ी जीत ली हो, लेकिन सपा के साथ उनकी दोस्ती आगे भी कायम रहने वाली है.
ज़ाहिर है, उत्तर प्रदेश के दो उप-चुनावों ने उन्हें 2019 के लोकसभा चुनाव लड़ने की मारक तरकीब दे दी है.
अब लौटते हैं कैराना की तरफ़. पांच साल पहले ये इलाका सुर्खियों में था और वजह थी साम्प्रदायिक दंगे. हालांकि, इसका एक पक्ष और भी है जिसके बारे में शायद ज़्यादा लोगों को जानकारी न हो.
आज जिस कैराना की चर्चा राजनीतिक वजहों से हो रही है वह भारतीय शास्त्रीय संगीत परंपरा को जानने-मानने वालों के लिए तीर्थस्थल की तरह है.
जिसे किराना घराना के नाम से दुनिया जानती है वह कैराना की ज़मीन से पनपी है और उसका डेढ़ सौ साल का इतिहास है, ख़ास तौर पर ख़याल गायिकी के मामले में उसकी बहुत प्रतिष्ठा है.
किराना घराना ने एक से एक बढ़कर उस्ताद इस देश को दिए हैं, घराने के संस्थापक भाइयों अब्दुल करीम ख़ान-अब्दुल वाहिद ख़ान के अलावा, सवाई गंधर्व, भीमसेन जोशी, हीराबाई बरोडकर, गंगूबाई हंगल से लेकर प्रभा अत्रे जैसे बड़े नाम हैं.
कैराना की राजनीति
लेकिन संगीत से ज़्यादा अब कैराना की चर्चा राजनीति की वजह से होती है. उत्तर प्रदेश की ये सीट समूचे प्रदेश की हवा का अंदाज़ा देने का दमख़म रखती है. कम से कम पिछले दो चुनावों का चलन यही बताता है.
भाजपा ने साल 2014 में 80 में से 73 लोकसभा सीटें जीतकर धमाका कर दिया था. हुकुम सिंह को 5.65 लाख वोट मिले थे जबकि सपा और बसपा के उम्मीदवारों को 3.29 लाख और 1.60 लाख वोट मिले थे.
अगर सपा-बसपा के वोट जोड़ लिए जाएं तो भी भाजपा आगे है. लेकिन 2014 और 2018 की कहानी अलग भी हो सकती है.
इंडियन एक्सप्रेस की गणना के मुताबिक साल 2017 में अगर सपा-बसपा को मिले वोट देखे जाएं और उसके हिसाब से 2019 का अंदाज़ा लगाया जाए तो सपा-बसपा की दोस्ती, भाजपा पर भारी पड़ेगी.
गठबंधन 57 सीटें ले उड़ेगा और एनडीए के पास सिर्फ़ 23 बचेंगी, साल 2014 की तुलना में 50 कम.
कैराना लोकसभा सीट के अंतर्गत विधानसभा की पांच सीटें आती हैं. नकुर, गंगोह, थाना भवन, शामली और कैराना. साल 2017 में भाजपा ने शुरुआती चारों जीती, जबकि पांचवीं सपा के खाते में गई थी.
वोटबैंक का समीकरण
अगर इन पांचों सीटों पर सपा, बसपा और कांग्रेस को मिले सारे वोट जोड़ लिए जाएं तो कुल योग 4.98 लाख बनता है जो भाजपा के 4.32 लाख वोट से ज़्यादा है.
कैराना लोकसभा सीट पर 17 लाख वोटर हैं जिनमें तीन लाख मुस्लिम, चार लाख बैकवर्ड (जाट, गुर्जर, सैनी, कश्यप, प्रजापति और अन्य शामिल) और क़रीब 1.5 लाख वोट जाटव दलितों के हैं, जो बसपा का पारंपरिक वोटबैंक माना जाता है.
इस इलाके में यादव वोटर कम हैं जो सपा का वोटबैंक माना जाता है. ऐसे में दलित वोट यहां भी अहम जाते हैं. गोरखपुर और फूलपुर की तरह अगर यहां भी बसपा का वोट ट्रांसफ़र होता है, तो भाजपा मुश्किल में आ सकती है.
ये इलाका साम्प्रदायिक बारूद पर भी बैठा रहता है और साल 2013 में हुए दंगों ने इसका एक नज़ारा दिखाया था.
दो साल पहले हुकुम सिंह ने आरोप लगाया था कि 346 हिंदू परिवारों को कैराना छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है क्योंकि उन पर ‘एक समुदाय विशेष’ अत्याचार कर रहा है.
साल 2017 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने इस मुद्दे को अपने चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा बनाया.
इस बार सपा-बसपा जहां एकता दिखाने की कोशिश कर सकती हैं वहीं गोरखपुर-फूलपुर में मुंह जलाने वाली भाजपा छाछ भी फूंक-फूंककर पीना चाहती है.
भाजपा किसे उतारेगी?
ऐसी ख़बरें हैं कि उप-चुनाव में भाजपा हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को मैदान में उतार सकती है क्योंकि इससे उन्हें सहानुभूति वोट और हिंदू वोट- दोनों मिल सकते हैं.
मृगांका ने हाल में इकोनॉमिक टाइम्स से कहा था, ”अगर पार्टी चाहेगी तो मैं ज़रूर लड़ूंगी. सपा-बसपा ने भी हाथ मिला लिया है, ऐसे में इस सीट पर कई समीकरण बदल गए हैं.”
कैराना लोकसभा सीट पिछले कई साल से अलग-अलग राजनीतिक दलों के खाते में जाती रही है. 1996 में सपा, 1998 में भाजपा, 1999 और 2004 में राष्ट्रीय लोकदल, 2009 में बसपा और 2014 में भाजपा.
2018 में ये सीट किसके खाते में जाएगी, इस पर सिर्फ़ प्रदेश नहीं बल्कि देश की भी निगाह रहेगी.