राहुल गांधी की ‘नई’ कांग्रेस की तैयारी में ‘युवा’ ज्यादा या ‘अनुभव’ ..?

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Court: Rasheed kidwai for BBC hindi

राहुल गांधी ने 16 दिसंबर 2017 को जब औपचारिक तौर पर कांग्रेस की कमान संभाली तो इस पुरातन पार्टी में कुछ बड़े बदलावों की उम्मीद लगाई जा रही थी.

ऐसी उम्मीदों को अमली जामा पहनाने के बजाए नई टीम को आगे बढ़ाने को लेकर राहुल की रफ़्तार सुस्त दिखी हैं.

वो युवा हैं लेकिन निर्णय लेने में किसी तरह का आवेग दिखाने की बजाए वो जाने पहचाने तरीकों को आजमाते और गुणा-गणित करते दिखते हैं.

इस तरह के संकेत मिल रहे हैं कि राहुल उन तमाम लोगों को बनाए रख सकते हैं जिन्हें पार्टी में पुरानी जमात में शुमार माना जाता है और युवाओं को इंतज़ार करते रहना पड़ सकता है.

क्या हैं संकेत?

अशोक गहलोत को संगठन और प्रशिक्षण मामलों का प्रभारी महासचिव बनाने का उनका फ़ैसला कई लिहाज से अहम है.

ये भारी भरकम ओहदा है. वास्तविकता ये है कि संगठन के प्रभारी महासचिव, कांग्रेस अध्यक्ष के राजनीतिक सचिव और कोषाध्यक्ष ऐसे तीन अहम पद हैं जिनकी पार्टी में सबसे ज़्यादा अहमियत है.

राहुल ने अपने इस कदम से परोक्ष रुप से संकेत दिया है कि जनार्दन द्विवेदी के लिए आगे की राह बंद हो गई है.

वो अब तक संगठन के प्रभारी महासचिव थे. गहलोत की नियुक्ति राजस्थान की रणभूमि के लिहाज से भी बेहद अहम लगती है जहां मैदान प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट के हवाले मालूम होता है.

संतुलन साधने की कोशिश

राजस्थान में वसुंधराराजे सिंधिया के मुक़ाबले पायलट कांग्रेस की अगुवाई करेंगे और अगर कांग्रेस सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को शिकस्त दे पाई तो पायलट का मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनना तय सा है.

अगर गहलोत की नियुक्ति पुरानी जमात को पुरस्कृत करने का संकेत देती है तो वहीं राजीव सताव और जितेंद्र सिंह को गुजरात और ओडिशा का प्रभारी बनाया जाना संकेत देता है कि युवा नेतृत्व की वकत बनी रहनी है. गुजरात में विपक्ष के नवनियुक्त नेता परेश धनानी और प्रदेश अध्यक्ष अमित चावड़ा की उम्र चालीस साल से थोड़ी ही ज़्यादा है.

चावड़ा गुजरात में कांग्रेस के सबसे युवा प्रदेश अध्यक्ष हैं और ओबीसी नेता हैं. युवा नेताओं को आगे लाकर पार्टी में ऊर्जा भरने वाले राहुल ने भरत सोलंकी खेमे को भी संतुष्ट करने की कोशिश की है. सोलंकी और चावड़ा रिश्तेदार हैं.

ये सामने आना बाकी है कि क्या राहुल मोतीलाल वोरा को पार्टी कोषाध्यक्ष के पद पर बनाए रखते हैं.

अस्सी बरस से ज़्यादा उमर के वोरा सोनिया गांधी के विश्वस्त लेफ्टिनेंट माने जाते हैं.

ये भी राय सामने आ रही है कि राहुल गांधी वोरा को पद पर बनाए रख सकते हैं और अपने करीबी सहयोगी कनिष्क सिंह से कोषाध्यक्ष का काम ले सकते हैं.

कनिष्क बीते कुछ सालों से वोरा के ‘सहयोगी’ हैं. इसे उन्हें तैयार किए जाने के तौर पर देखा जाता है.

अहमद पटेल का रोल क्या होगा?

राहुल गांधी पर निगाहें इस बात को लेकर भी है कि वो सोनिया के पूर्व राजनीतिक सचिव अहमद पटेल को क्या भूमिका देते हैं.

पटेल को कांग्रेस में गांधी परिवार के बाद सबसे शक्तिशाली नेता माना जाता रहा है. राहुल गांधी उनके व्यापक अनुभव का इस्तेमाल एनडीए से बाहर के दलों के साथ गठबंधन के लिए कर सकते हैं.

20 से ज़्यादा राजनीतिक दल ऐसे हैं जो नरेंद्र मोदी सरकार के ख़िलाफ एक बड़े गठबंधन का हिस्सा बनने के इच्छुक हैं. सीटों के तालमेल के लिए जिस तरह के वार्ताकार की ज़रूरत होती है, अहमद पटेल के पास वो अनुभव और लचीलापन है.

लेकिन क्या राहुल गांधी राजनीतिक सचिव का पद ख़त्म कर देंगे?

इसके समर्थन और विरोध में तमाम प्रभावी तर्क हैं. अगर के राजू और अजय माकन जैसे नेताओं को कांग्रेस अध्यक्ष के कार्यालय में लाया जाता है तो राहुल आसानी से इस पद को ख़त्म कर सकते हैं.

कठिन चुनौती

राहुल गांधी के सामने चुनौती बहुत कठिन है. इसके लिए कई स्तर की रणनीति बनाने, प्रोफ़ेशनलिज़्म और कड़े फ़ैसले लेने की ज़रूरत है. समस्या ये है कि राहुल से ज़्यादा कांग्रेस मानसिक और सांगठनिक तौर पर इसके लिए तैयार नहीं दिखती है.

राहुल को अभी कांग्रेस कार्यसमिति का गठन करना है. उन्हें 17-18 मार्च को इसके लिए सर्वाधिकार दे दिए गए थे.

कांग्रेस अध्यक्ष 1991 से अप्रभावी कांग्रेस संसदीय बोर्ड (सीपीबी) के गठन को लेकर चुप्पी साधे हुए हैं.

कांग्रेस के संविधान के मुताबिक दस सदस्यीय सीपीबी कांग्रेस अध्यक्ष के बाद पार्टी का सबसे अहम और शक्तिशाली हिस्सा है.

विधानसभा और संसद के लिए पार्टी उम्मीदवारों के चयन, मुख्यमंत्रियों और कांग्रेस विधानमंडल नेताओं के चयन के लिए पार्टी के संविधान में इसका बार-बार उल्लेख होता है. (कांग्रेस कार्यसमिति से भी ज़्यादा)

बदलाव ज़रूरी

अगर सीपीबी का गठन होता है तो इसमें डॉक्टर मनमोहन सिंह, अहमद पटेल, अंबिका सोनी, दिग्विजय सिंह, ऑस्कर फर्नांडीज़, मल्लिकार्जुन खडगे, सुशील कुमार शिंदे और एके एंटनी जैसे पुराने दिग्गज नेताओं को जगह दी जा सकती है.

राहुल के लिए ज़रूरी है कि वो पार्टी में हर स्तर पर जवाबदेही तय करने की बात करें. अपनी मां सोनिया गांधी के उलट उन्हें कांग्रेस में ‘सब चलता है’ की संस्कृति को विदा करना होगा.

उत्प्ररेक के तौर पर काम करने का उनका रुझान, आइडेंटिटी पॉलिटिक्स और वफ़ादारी को कम तव्वजो देना ऐसे पहलू हैं जिन्हें लेकर उन्हें पार्टी के अंदर प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है.

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