2014 के आम चुनाव में गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड और झारखंड जैसे कुछ राज्यों में तो तकरीबन सभी सीटें भाजपा-एनडीए के खाते में ही गई थीं। हाल के चुनाव और उपचुनावों के नतीजों के मद्देनजर शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ का मानना है कि इन राज्यों में भाजपा को तकरीबन 110 सीटों का नुकसान हो सकता है.. इस नुकसान की भरपाई भाजपा और संघ पश्चिम बंगाल और ओडिशा, उत्तर-पूर्व और दक्षिण भारत के राज्यों से करने की सोच रही है .. नॉर्थ-ईस्ट इंडिया में तो मिजोरम को छोड़कर तकरीबन सभी राज्यों में एनडीए की सरकारें बनाने में कामयाबी भी मिल गई है लेकिन मुश्किल यह है कि उत्तर-पूर्व में लोकसभा की कुल 25 में से तकरीबन आधी सीटें ही अभी भाजपा-एनडीए के पास हैं.. ओडिशा और पश्चिम बंगाल में हाल में जितने चुनाव-उपचुनाव हुए उनमें भाजपा दूसरे स्थान पर उभरती हुई तो नजर आ रही है लेकिन अभी इन राज्यों में केवल तीन सीटों वाली बीजेपी इतनी ताकतवर नहीं हो सकी है कि लोकसभा की कुल 63 में से ज्यादातर सीटें अपनी झोली में भर सके …
दक्षिण से दूरी बढ़ी
दक्षिण भारत की कुल 130 में से 37 सीटें अभी भाजपा-एनडीए के पास हैं। दक्षिण में भी वाम दलों और कांग्रेस के गढ़ कहे जाने वाले केरल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सहारे वह अपने विस्तार में जुटी है। लेकिन क्या वह त्रिपुरा जैसा राजनीतिक करिश्मा केरल में भी दिखा पाएगी? तमिलनाडु में जहां एक तरफ भाजपा की कोशिश तमिल मेगा स्टार रजनीकांत को अपने पाले में लाने की है, वहीं इसकी कोशिश वहां द्रमुक अथवा सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के किसी धड़े के साथ चुनावी गठबंधन की भी है। लेकिन भाजपा की परेशानी आंध्र और तेलंगाना को लेकर बढ़ गई है। आंध्र प्रदेश में वह इस उम्मीद में थी कि टीडीपी और वाइएसआर (कांग्रेस) में से किसी एक के साथ वह अपनी शर्तों पर तालमेल कर ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटों पर लड़ सकेगी। लेकिन अभी दोनों क्षेत्रीय दल इससे दूरी बना रहे हैं। दोनों ने आंध्र प्रदेश के आर्थिक हितों के साथ भेदभाव का आरोप लगाते हुए मोदी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया है। बदले राजनीतिक समीकरण में टीडीपी के तीसरे मोर्चे और वाइएसआर कांग्रेस के अपने पुराने खोल कांग्रेस की ओर लौटने की अटकलें लग रही हैं.. हालांकि, वाइएसआर कांग्रेस के नेता जगनमोहन रेड्डी पर भ्रष्टाचार से जुड़े मुकदमों की लटकती तलवार का इस्तेमाल भाजपा उन्हें अपनी ओर झुकाने के लिए कर सकती है। अभी तक कमोबेश भाजपा के साथ ही रहे तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव अब ममता बनर्जी तथा कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर तीसरे मोर्चे को खड़ा करने में जुटे हैं। भाजपा की नजर उन पर भी है।
कर्नाटक बताएगा हवा का रुख
कर्नाटक में पहले से ही भाजपा का खासा जनाधार है। वैसे, राज्य का रुख विधानसभा के आसन्न चुनावी नतीजों से ही पता चलेगा। जाहिर-सी बात है कि कर्नाटक विधानसभा के चुनावी नतीजे ही इस बार 2019 के मध्य में या उससे पहले 2018 के अंत में होने वाले लोकसभा के चुनाव के ट्रेलर साबित हो सकते हैं। भाजपा और कांग्रेस भी, दक्षिण भारत के किसी राज्य में भाजपा को पहला मुख्यमंत्री देने वाले कर्नाटक को जीतने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ने वाले।
हालांकि, भाजपा के रणनीतिकार मानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री मोदी अभी भी सबसे लोकप्रिय नेता हैं जिनसे इस देश को और खासतौर से युवाओं को अब भी बहुत उम्मीदें हैं। अंतर्विरोधों से ग्रस्त विपक्ष में मोदी का कोई दमदार और भरोसेमंद विकल्प भी नहीं है। लेकिन तेजी से बदल रहे राजनीतिक घटनाक्रम इसके पक्ष में गवाही नहीं देते। यह सही है कि अभी अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी को गंभीर चुनौती देने वाला विपक्ष के पास कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। लेकिन गुजरात विधानसभा के चुनाव, राजस्थान और मध्य प्रदेश में संसदीय और विधानसभाई उपचुनाव जीतने से कांग्रेस का मनोबल बढ़ा है। कांग्रेस और राहुल गांधी चाहें तो अगले आम चुनाव और उससे पहले भी भाजपा-एनडीए विरोधी राजनीतिक दलों का महागठबंधन बनाकर मजबूत चुनौती पेश कर सकते हैं। इसकी पहल सोनिया गांधी ने अपने निवास पर 21 विपक्षी दलों के नेताओं और उनके प्रतिनिधियों को रात्रिभोज पर बुलाकर कर दी है। उन्होंने संसद में बीजू जनता दल के नेता भर्तृहरि मेहताब से बात की और पूछा कि क्या उनकी पार्टी ओडिशा में अकेले भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में है। शायद इसका भी असर है कि ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजद के नेता नवीन पटनायक ने हाल के उपचुनावों के नतीजों के बाद कहा, “भाजपा बहुत तेजी से रसातल की ओर जा रही है। भविष्य में हमारे किसी विपक्षी मोर्चे में शामिल होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।”