एक ज़माना था जब बीजेपी के पुराने अवतार जनसंघ के ज़माने में कांग्रेस नारा लगाती थी कि ‘इस दीपक में तेल नहीं .. सरकार चलाना खेल नहीं’ .. लेकिन वक्त बदला .. जिसे सरकार चलाना नहीं आता था .. आज वो बीस राज्यों में है .. और बीजेपी पर कटाक्ष करने वाली पार्टी 5 राज्यों में सिमट गई है .. आगे ये संख्या और कम हो सकती है ..
कांग्रेस के साथ ये क्या से क्या हो गया ..!
बदलाव की कई वहज हैं .. जो मौके कांग्रेस ने गंवाए .. वो बीजेपी ने भुनाए .. त्रिपुरा मे 25 साल पुराना लेफ्ट का किला ढह गया .. माणिक सरकार ईमानदार छवि के थे .. लेकिन सरकार ने नीचे का मामला बेईमानी वाला था .. लोग परेशान थे .. बीजेपी ने मौका भुनाया .. और ‘सरकार’ सत्ता में नहीं रहे .. तैयारी पहले से थी .. पश्चिम बंगाल में ममता को देखकर बीजेपी ने सोचा कि वो शायद सत्ता के लिए एक और राज्य चाहेंगी .. इसलिए .. वो पहले तृणमूल के साथ गए .. लेकिन ममता की सोच केवल बंगाल के लिए थी .. वो इससे बाहर आने को राज़ी नहीं थीं .. अब सरकार की मुखालफत करने वालों के पास सिर्फ़ बीजेपी विकल्प था .. इसके लिए बीजेपी तैयार थी .. नतीजा ये हुआ .. कि डेढ़ प्रतिशत वोट बैंक वाली बीजेपी पांच साल में 42 प्रतिशत पर पहुंच गई .. वही हाल नागालैंड और त्रिपुरा में हुआ .. चार साल पहले यहां जिस हाल में कांग्रेस थी . अब वो बीजेपी के लिए थी .. सबसे ज़्यादा कांग्रेस का नुकसान लोकसभा चुनाव के नज़रिए से देखें तो पूरे पूर्वोत्तर में लोकसभा की कुल पच्चीस ही सीटें हैं. इसलिए ये जीत लोकसभा के अंक गणित को बहुत बड़े पैमाने पर बदल देगी ऐसा नहीं है. पर भाजपा संगठन और उसकी केंद्र सरकार के लिए इस जीत के बहुत मायने हैं. पूर्वोत्तर में ऐसी पैठ से भाजपा के हिंदी पट्टी की पार्टी होने बिल्ला हट गया है. दूसरे, त्रिपुरा की जीत से पश्चिम बंगाल और केरल में पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा. त्रिपुरा में हारी तो मार्क्सवादी पार्टी है पर नुक़सान सबसे ज्यादा कांग्रेस को हुआ है. वह भी राष्ट्रीय स्तर पर. ये नुक़सान वोट के लिहाज से नहीं बल्कि बौद्धिक पूंजी (इंटेलेक्चुअल कैपिटल) का होगा. वैचारिक बौद्धिक स्तर पर अब अंदरूनी संघर्ष और तेज़ होगा. राजस्थान, मध्य प्रदेश के लिए रणनीतिकांग्रेस को सबसे ज़्यादा मदद वामपंथी बुद्धिजीवियों से मिलती थी. माकपा के कमज़ोर होने से कांग्रेस को घाटा ज़्यादा होगा क्योंकि कमज़ोर हालत में भी भाजपा को चुनौती देने वाली वह एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है. गुजरात विधानसभा चुनाव में अपेक्षा से ख़राब प्रदर्शन और राजस्थान में तीन उपचुनाव (दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट) हारने के बाद राजनीतिक हलकों में एक चर्चा चल पड़ी थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा शासित तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में सत्ता विरोधी रुझान से बचने के लिए समय से पहले लोकसभा चुनाव करा सकते हैं. कयास लगाया जा रहा था कि इस साल के अंत तक लोकसभा चुनाव हो सकते हैं. मतदाताओं में विश्वसनीयताइस बात को प्रधानमंत्री के बार-बार ये कहने से भी बल मिला कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ साथ कराने पर विचार किया जाना चाहिए. अब एक बार फिर यह चर्चा शुरू हो सकती है कि पूर्वोत्तर की जीत से बने माहौल का फ़ायदा उठाने के लिए भाजपा लोकसभा चुनाव जल्दी करा सकती है. पर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में इस बात को लेकर कोई दुविधा नहीं है. उसका मानना है कि लोकसभा चुनाव समय से पहले किसी हाल में नहीं होंगे. समय से पहले सत्ता छोड़ने में इस नेतृत्व का यक़ीन नहीं है. पिछले चार सालों में भाजपा ने जितनी जीत हासिल की है, उसके पीछे संगठन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मतदाताओं में विश्वसनीयता सबसे बड़े कारण रहे हैं. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार और नरेंद्र मोदी सरकार में एक बुनियादी फ़र्क यह है कि आज सरकार और संगठन में बेजोड़ तालमेल है और इन दोनों को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का पूरा समर्थन है. वाजपेयी सरकार के समय ऐसा नहीं था. इस तालमेल की एक बड़ी वजह संघ का एक लक्ष्य भी है. साल 2025 में संघ के गठन के सौ साल पूरे हो रहे हैं. संघ की इच्छा और कोशिश है कि उसके शताब्दी समारोह के समय देश के अधिकतर राज्यों और केंद्र में भाजपा की सरकार हो. अमित शाह भाजपा के जिस स्वर्णिम काल की बात करते हैं शायद ये वही है. |