.. तो क्या चुनाव जीतने के लिए जनता की ‘चिरौरी’ नहीं करनी पड़ेगी ..!

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K.N GovindaCharya, Political Analyst
भारतीय अर्थव्यवस्था में गाट (जीएटीटी) के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए मैंने राजनीति से दो वर्ष का अवकाश लिया। उस अध्ययन के दौरान मैंने यह महसूस किया कि आने वाले समय में विकासशील देशों की समाज और अर्थव्यवस्था पर टेक्नोलॉजी के माध्यम से अमेरिका जैसे देश प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास कर सकते हैं। लेकिन मुझे नहीं मालूम था कि टेक्नोलॉजी से भारतीय राजनीति भी संचालित होकर जनता के साथ आभासी ही हो जाएगी। आजादी का आंदोलन और उसके बाद जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में जन-नेताओं की जनता के साथ सीधी भागीदारी थी। जनता के साथ यह भागीदारी 2012 में अन्ना हजारे के आंदोलन तक दिखी, जिसके बाद राजनेता सोशल मीडिया से लैस होकर जनता से दूर होते गए। हर नेता के करोड़ों फॉलोअर और प्रशंसक हैं, फिर भी अपनी उपलब्धियों के बखान के लिए बड़े-बड़े विज्ञापन और होर्डिंग लगाने पर सरकारी खजाने से हजारों करोड़ खर्च कर दिए जाते हैं।

टेलीविजन आने के बाद से चुनावों में विश्लेषकों (सेफोलिस्ट) की भूमिका बढ़ने के बाद राजनीति में विशेषज्ञों का आगमन शुरू हुआ। चुनावी विशेषज्ञों ने सर्वेक्षणों के आधार पर जिताऊ उम्मीदवार का फॉर्मूले देना शुरू कर दिया। इंटरनेट और सोशल मीडिया के नए दौर में जनता के पास गए बगैर अब चुनाव भी जीता जा सकता है। मैंने इन मुद्दों पर दिल्ली उच्च न्यायालय में 2012 में एक याचिका के माध्यम से डेटा सुरक्षा, साइबर सुरक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा, बच्चों की सुरक्षा और टैक्स चोरी जैसे कई अहम मुद्दे उठाए। पूर्ववर्ती कांग्रेस या यूपीए की सरकार ने सोशल मीडिया के इस्तेमाल से पर्दा रखते हुए, अदालत के सम्मुख साफ जवाब नहीं दिया। लेकिन भाजपा या एनडीए की सरकार ने सोशल मीडिया का आधिकारिक इस्तेमाल करते हुए भी अदालत के सामने पारदर्शी जवाब देने में कोताही बरती। गूगल की ओर से जब रेलवे स्टेशनों में फ्री वाइ-फाइ देने के प्रोजेक्ट की शुरुआत हुई तो मैंने खुद प्रधानमंत्री जी को पत्र लिखकर कंपनी का ब्योरा मांगा।

दरअसल, गूगल इंडिया को भारत की सबसे सम्मानित कंपनी मानते हुए एक पत्रिका ने इसका चार लाख करोड़ से ज्यादा का टर्नओवर बताया था। मेरे मामले में सरकार ने जवाब दिया कि गूगल की भारत में आमदनी कुछ हजार करोड़ ही है और गूगल या फेसबुक द्वारा भारत में कोई टैक्स चोरी नहीं की जा रही है। गूगल या सरकार द्वारा पत्रिका में छपे 4.29 लाख करोड़ की बिक्री के आंकड़ों पर कोई जवाब ही नहीं दिया गया और अगले साल की पत्रिका में इन आंकड़ों को गायब करके नॉट एप्लिकेबल लिख दिया गया। क्या यही है इंटरनेट की कंपनियों की पारदर्शिता और आभासी सच?

पूरे देश में सोशल मीडिया की अराजकता से आम जनता, पुलिस और सुरक्षा अधिकारी परेशान हैं, लेकिन इंटरनेट कंपनियों ने भारत के काम-काज के लिए शिकायत अधिकारियों को विदेश में बैठाया हुआ है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने यूरोप द्वारा भारत की संपदा ले जाने पर ‘भारत दुर्दशा’ का जो वर्णन किया था, वैसा ही अब अमेरिकी इंटरनेट कंपनियों द्वारा किया जा रहा है। आम आदमी पार्टी ने अनायास अपना राजनीतिक स्वरूप बनाया और सफल होने के लिए दिल्ली जैसे महानगर में जनता के साथ सोशल मीडिया का रोमांच पैदा कर दिया। आप पार्टी की सफलता के बाद भारतीय राजनीति में सोशल मीडिया के इस्तेमाल की होड़ ही लग गई, फिर वैधानिक मुद्दों पर गौर कौन करे। सभी दलों के नेताओं की राष्ट्रहित से जुड़े इस गंभीर विषय पर या तो रुचि नहीं है और या फिर समझ का अभाव है।

मैंने देश के अनेक गैर-राजनीतिक लोगों के साथ मिलकर मुख्य चुनाव आयुक्त वी.एस. संपत से मुलाकात करके ज्ञापन सौंपा। चुनाव आयोग परंपरागत प्रचार और प्रसार को ही आचार संहिता के दायरे में लाता था। अधिवक्ता श्री विराग गुप्ता के माध्यम से दिए गए विस्तृत ज्ञापन को आधार मानते हुए चुनाव आयोग ने अक्टूबर 2013 में सोशल मीडिया के लिए नई गाइडलाइंस जारी किया। चुनाव आयोग द्वारा इसके बाद अनेक क्षेत्रों में इसके लिए विशेष पर्यवेक्षक भी नियुक्त किए गए, लेकिन इन दिशा-निर्देशों का सही अर्थों में पालन ही नहीं हुआ।

‘गाट’ प्रावधानों का भारत पर दुष्प्रभावों का अध्ययन करते समय मुझे भी यह आभास नहीं था कि इंटरनेट के माध्यम से ई-कॉमर्स कंपनियां भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने अधिकार में ले लेंगी। मध्यकाल में पुनर्जागरण के बाद यूरोप और फिर अमेरिका ने उपनिवेशवाद के लिए व्यापार और प्रच्छन्न सैन्य बल का इस्तेमाल किया। पचास वर्ष पूर्व अमेरिका ने टेक्नोलॉजी में बड़े पैमाने पर निवेश करके अब इंटरनेट को नव-उपनिवेशवाद का नया माध्यम बना लिया है। इसकी सफलता के लिए अमेरिका को भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देशों का डेटा चाहिए, जिसके विश्लेषण से न सिर्फ व्यापारिक सफलता बल्कि राजनीतिक प्रभुत्व भी रखा जा सके। इंटरनेट कंपनियों द्वारा अमेरिका और भारत के लोगों की सोच और तासीर बदलने में सफलता से मैकाले का बकाया एजेंडा पूरा हो रहा है।

देश दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देशमुख की शताब्दी जयंती समारोह मना रहा है, लेकिन उनकी सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टिकोण का सरकार की नीतियों में प्रभाव तो दिख नहीं रहा है। फिर 21वीं शताब्दी में भारत विश्व का सिरमौर कैसे बनेगा, जिसका स्वामी विवेकानंद ने स्वप्न देखा था। अमेरिकी चुनावों में फेसबुक के डाटा के विश्लेषण पर बहस से भारत में जागरूकता एक अच्छी शुरुआत है। पर, सवाल यह है कि इंटरनेट के दौर में जनता से कटे आभासी नेताओं से गवर्नेंस में बदलाव की उम्मीद कैसे की जाए?
Thanks .. Outlook Hindi

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