team TRP
Pic. Indian Express
शुक्रवार को गुजरात हाई कोर्ट ने राज्य की पूर्व मंत्री माया कोडनानी को 2002 के दंगों के नरोडा-पाटिया मामले में बरी कर दिया. माया कोडनानी 2002 में दंगों के वक्त नरोडा से विधायक थीं. वहां पर गुजरात के 2002 के दंगों की सबसे हिंसक घटनाओं में से एक हुई थी. कोडनानी को नरोडा-पाटिया हत्याकांड में बरी किया जाना ऐसी घटनाओं में सामूहिक रूप से नामजद किए गए लोगों को बरी किये जाने के सिलसिले की नई कड़ी है.
नरोडा-पाटिया में 97 लोगों की हत्या कर दी गई थी. इनमें से ज्यादातर महिलाएं और बच्चे थे. माना जाता था कि सुप्रीम कोर्ट की बनाई SIT ने इस मामले की बारीकी से जांच की थी और माया कोडनानी, बाबू बजरंगी और 59 दूसरे आरोपियों के खिलाफ पुख्ता सबूत जुटाए थे.
हालांकि SIT कोर्ट ने इस मामले मे 32 लोगों को दोषी ठहराया था, जिसमें माया कोडनानी और बाबू बजरंगी भी शामिल थे. लेकिन निचली अदालत ने सबूतों के अभाव में 29 दूसरे आरोपियों को बरी कर दिया था.
कोडनानी का बरी होना एक ऐसे सिलसिले की कड़ी है, जिसने भारत की आपराधिक न्यायिक व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. इन मामलों से ऐसा लग रहा है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था सामूहिक अपराध के ऐसे मामलों से निपटने में सक्षम नहीं. हाल ही में अदालतों ने बिहार में निचली जातियों के लोगों को मारने के केस में सवर्ण जाति के आरोपियों को बरी कर दिया था. हालांकि राज्य सरकार ने इस मामले को ऊपरी अदालत में ले जाने का भरोसा दिया था, मगर पीड़ितों को अब भी इंसाफ की उम्मीद नहीं नजर आती.
सामूहिक अपराधों के ऐसे कई मामले हैं, जिनमें अदालतें इंसाफ करने में नाकाम रही हैं. इस बात को समझने के लिए हम कुछ और मामलों पर नजर डालते हैं. मई 1987 में यूपी पुलिस के हथियारबंद दस्ते पीएसी यानी प्रॉविंशियल आर्म्ड कॉन्स्टेबुलरी पर मेरठ के मलियाना में 72 और हाशिमपुरा में 42 मुसलमानों को मार डालने का आरोप लगा था. हाशिमपुरा में तो सेहतमंद मुस्लिम युवाओं को पीएसी के जवानों ने इकट्ठा करके गाजियाबाद में हिंडन नहर के पास ले जाकर सीधे गोली मार दी थी.
उस वक्त बीर बहादुर सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे. इस घटना ने खूब सुर्खियां बटोरी थीं. लेकिन आज तीन दशक बाद भी किसी आरोपी को सजा नहीं हुई है. हाशिमपुरा केस में सारे आरोपियों को हाल ही में बरी कर दिया गया. वहीं मलियाना का मामला तब से अदालतों में खिंच ही रहा है. इस दौरान अपराध के तमाम चश्मदीदों की मौत हो गई. उनके बयानों की कैफियत वक्त के साथ कमजोर होती गई.
अब 1984 में दिल्ली, कानपुर और बोकारो के सिख विरोधी दंगों की बात करें, तो इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के उन दंगों में हजारों लोग मारे गए थे. राजीव गांधी सरकार ने जस्टिस रंगनाथ मिश्रा की अगुवाई में इन दंगों की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग बनाया था. रंगनाथ मिश्र ने अपनी रिपोर्ट में हरिकिशन लाल भगत, जगदीश टाइटलर, सज्जन कुमार और कमलनाथ जैसे कई कांग्रेसी नेताओं का इन दंगों में हाथ बताया था. ये दंगे आजाद भारत में सामूहिक अपराध के सबसे घिनौने मामलों में से एक थे.
रंगनाथ मिश्र आयोग और पुलिस की जांच में कानपुर और बोकारो में दंगों के लिए किसी को सीधे तौर पर दोषी नहीं ठहराया गया. जबकि जनता उन्हें पहचानती थी. नतीजा ये हुआ कि सबूतों के अभाव में सभी को बरी कर दिया गया. कानपुर में तो जिन अधिकारियों पर हिंसा भड़काने का आरोप लगा था, उन पर भी केस नहीं चल सका.
इसी तरह बिहार में, 1989 के भागलपुर दंगों में बड़ी संख्या में मुसलमान मारे गए थे. इन दंगों में इंसाफ का पहिया तब घूमा जब 2005 में नीतीश कुमार राज्य के मुख्यमंत्री बने और उन्होंने भागलपुर केस की जांच के लिए एक आयोग बनाया. तब तक, खुद को अल्पसंख्यकों का मसीहा कहने वाले लालू यादव ने पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए एक भी कदम नहीं उठाया. इसकी वजह ये थी कि ज्यादातर आरोपी उनकी यादव जाति के थे.
आज भी बिहार की राजधानी पटना में उन दंगों के पीड़ितों के लिए बने अस्थाई कैंप में लोगों को रहते देखा जा सकता है. तीस साल में हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था उन लोगों को इंसाफ देने में नाकाम रही है, जिन्होंने सांप्रदायिक हिंस्सा में अपने परिजनों और रिश्तेदारों को खोया था.