Dr. Buddhsen Kashyap, Senior Editor, TRP
कर्नाटक की सत्ता पर काबिज होना है तो लिंगायतों को मिलाकर चलना ही होगा. बी एस येदुरप्पा ने कर्नाटक में इसी समाज के बूते भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की थी. फिर जब उन्होंने भाजपा से बगावत की तो पार्टी को सत्ता गंवानी पड़ी. इस बार भी वह यही मंसूबा पाल रखी थी. लेकिन कांग्रेस ने एक ही झटके में उसके मंसबों पर पानी फेर दिया. लिंगायत को अलग धर्म की मान्यता देने सम्बंधी प्रस्ताव को मंत्रिमंडल से पारित कराकर. गेंद केंद्र सरकार के पाले में डाल दी है. केन्द्र की भाजपा सरकार राज्य सरकार के प्रस्ताव को खारिज करती है तो लिंगायतों की नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है और पास किये जाने पर कांग्रेस इसका श्रेय लेने की कोशिश करेगी. दोनों ही स्थिति में फायदा कांग्रेस को ही होना है. इस मांग को लेकर लिंगायत समाज लम्बे समय से आंदोलन कर रहा था..
कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने जा रहा है और ऐसे समय में लिंगायत को अलग धर्म की मान्यता देने का मुद्दा गर्म होना काफी मायने रखता है. कर्नाटक में लिंगायतों की आबादी अच्छी खासी है. 2011 में हुए जनगणना के अनुसार वहां लिंगायत समाज की आबादी 17 प्रतिशत के आसपास है और 224 सीटों वाली कर्नाटक विधान सभा में लगभग 100 ऐसी सीटें हैं जिन पर लिंगायतों का प्रभाव है. ऐसे में कोई भी राजनीतिक पार्टी इनके समर्थन के बिना सरकार नहीं बना सकती. बंगलुरु में लिंगायत महाधिपतियों के सम्मलेन में जब सारे मठाधीशों ने कांग्रेस के समर्थन की घोषणा की तो इस मुद्दे पर एक बार फिर बहस छिड़ गयी कि लिंगायत हिंदू हैं या नहीं. भाजपा ने लिंगायतों को हिन्दू बताते हुए कांग्रेस पर हिन्दू धर्म को तोड़ने तक का आरोप लगाया गया.
सवाल यह उठता है कि क्या वाकई लिंगायत समाज हिंदू धर्म का हिस्सा हैं? कई ऐसी चीजें हैं जिससे लगता है कि यह हिन्दू धर्म का ही हिस्सा है. प्राचीत ग्रंथों के अनुसार, बस्वाचार्य यानी बासवन्ना ने सनातन धर्म के विकल्प में एक पंथ खड़ा किया जिसने निराकार शिव की परिकल्पना की और जाति एवं लिंग-भेद के खिलाफ काम करना शुरू किया. बासवन्ना के वचनों का इतना प्रभाव हुआ कि सभी जाति के लोगों ने लिंगायत धर्म को अपनाया. लिंगायत जनेऊ धारण तो नहीं करते हैं लेकिन इष्ट शिवलिंग को अपनाते हैं. उसे धारण करते हैं और उसकी उपासना करते हैं.
इस मुद्दे को लेकर हुई बहस में काफी खून खराबा हो चुका है. लिंगायतों का मानना है कि वो हिंदू नहीं हैं क्योंकि उनका पूजा करने का तरीका हिंदुओं से बिलकुल अलग है. वो निराकार शिव की आराधना करते हैं, मंदिर नहीं जाते और ना ही मूर्ति की पूजा करते हैं. हालांकि, लिंगायतों का ही एक हिस्सा खुद को हिन्दू मानता है और शिव की पूजा करता है. यही नहीं, गले में लिंग धारण भी करता है. अंतर केवल इतना है कि ये बासवन्ना के वचनों पर चलते हैं. यह लिंगायत के वीरेशैवा पंथ को मानता है. इस पंथ को माननेवालों की आस्था वेदों और पुराणों में है. इस पंथ के लोग लिंगायत के हिंदू धर्म से अलग होने का विरोध करते आ रहे हैं. वीरेशैवा पंथ के बारे मे कहा जाता है कि यह काफी पुरानी है. इसकी शुरुआत जगत गुरू रेनुकाचार्य ने की थी. उन्होंने पांच पीठों की स्थापना की. इनमें सबसे महत्वपूर्ण मठ चिकमंगलूर का रंभापूरी मठ है. रेनुकाचार्य का उदय आंध्रप्रदेश के कोल्लिपक्का गावं में सोमेश्वर लिंग से हुआ था. इनके पहले शिष्य बस्वाचार्य का उदय 12वीं शताब्दी में हुआ जो जगतगुरु रेनुकाचार्य के अनुयायी थे. संस्कृत में लिखे कई दस्तावेज मौजूद हैं जिससे पता चलता है कि वीरेशैवा पंथ के मानने वाले लोग जिस तरह उपासना करते हैं वह हिन्दू धर्म की उपासना से काफी हद तक मिलता है.