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युवाओं के मामा, महिलाओं के भाई और बुजुर्गों का बेटा .. शिवराज खुद को पेश करने का वे कोई मौका नहीं छोड़ते .. उनके मामा नाम की शोहरत तो इतनी है कि कौन बनेगा करोड़पति के पिछले सीजन में एक प्रतिभागी से सवाल पूछा गया था कि किस राज्य के मुख्यमंत्री को मामा भी कहते हैं। इसी ताकत के बल पर उन्होंने 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को जीत दिलाई थी, जबकि उस वक्त पार्टी 2003 में मध्य प्रदेश की सत्ता में वापसी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली उमा भारती के बागी तेवरों से मुश्किलों में थी। इसके बाद 2013 के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने उनके नेतृत्व में कांग्रेस को पटखनी दी। लेकिन, इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले शिवराज सिंह की करिश्माई छवि सवालों के घेरे में है।
कोलारस और मुंगावली उपचुनाव के नतीजों के बाद तो उनके नेतृत्व को लेकर सवाल उठाने का सिलसिला भाजपा में और तेज हो गया है। कुछ नेता भाजपा को छोड़ कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं तो कुछ इस कोशिश में हैं। कोलारस और मुंगावली में उपचुनाव कांग्रेस विधायकों के निधन के कारण हुए थे। लेकिन, शिवराज ने जिस तरीके से इन उपचुनावों में ताकत झोंकी थी उसने इसे विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल बना दिया था। राज्य में उपचुनावों में भाजपा की यह लगातार चौथी हार थी। इससे पहले अटेर और चित्रकूट में भी उसे मात खानी पड़ी थी..
जून 2017 के आंदोलन में आठ किसानों की मौत और कर्ज के बोझ की वजह से कई किसानों के आत्महत्या करने की घटनाएं चुनाव में भाजपा को भारी पड़ सकती हैं। सो, वे किसानों को साथ लाने के लिए एक अप्रैल से किसान सम्मान यात्रा शुरू करने जा रहे हैं। यह यात्रा राज्य के सभी 230 विधानसभा क्षेत्रों से गुजरेगी…
कहा जा रहा है कि शिवराज सिंह का ग्राफ गिरने के साथ मध्य प्रदेश की वित्तीय स्थिति भी चरमरा गई है। इसका असर भी विधानसभा चुनाव पर पड़ने का अंदेशा है। राज्य सरकार ने टैक्स से पचास हजार करोड़ की राजस्व वसूली का लक्ष्य रखा था, इसमें भी उसके दस हजार करोड़ से पीछे रहने की खबर है। केंद्रीय सहायता 13 हजार करोड़ रुपये की जगह सात हजार करोड़ रुपये ही मिल पाई। केंद्रीय कर और जीएसटी की भरपाई भी उतनी नहीं मिल पाई जितनी मिलनी थी। राज्य पर 1.44 लाख करोड़ रुपये का कर्ज का भार भी है। ऐसे में शिवराज सिंह की घोषणाएं कैसे पूरी होंगी, यह भी एक बड़ा मुद्दा है। मुख्यमंत्री सभी को खुश करने में लगे हैं, मसलन, शिक्षाकर्मियों का नियमितीकरण और भावांतर योजना के तहत किसानों को मदद वगैरह। लेकिन, दमोह और होशंगाबाद के कुछ शिक्षकों की बातों से लगता है कि वे सरकार से नाराज हैं। दमोह में कई शिक्षक भाजपा को वोट नहीं करने का प्रचार भी कर रहे हैं।
नेताओं और कार्यकर्ताओं की नाराजगी भी भाजपा के लिए एक बड़ी परेशानी है। भाजपा में जिस तरह से सियासी गोटियां बिछाई जा रही हैं वह दिग्विजय सिंह के दूसरे कार्यकाल के आखिरी दिनों की याद दिला रही है। उस वक्त इसी तरह कांग्रेस कई खेमों में बंट गई थी। कमलनाथ, अर्जुन सिंह, माधव राव सिंधिया, श्रीनिवास तिवारी सबके अपने-अपने गुट थे। इससे कांग्रेस की प्रदेश में ऐसी जमीन सिकुड़ी कि वह 14 सालों से सत्ता से वनवास झेल रही है।
सेमरिया से भाजपा विधायक नीलम मिश्रा के पति और रीवा जिला पंचायत अध्यक्ष अभय मिश्रा ने कांग्रेस का दामन थाम लिया है। बताया जा रहा है कि वे विधानसभा चुनाव में शिवराज सरकार में मंत्री राजेंद्र शुक्ला के खिलाफ मैदान में उतर सकते हैं। मंत्री संजय पाठक से भी भाजपा के स्थानीय नेता और कार्यकर्ता नाराज बताए जाते हैं। मुरैना के पूर्व विधायक परशुराम मुद्गल भी नए ठौर की तलाश में हैं। पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर भी शिवराज सरकार पर निशाना साधने का कोई मौका नहीं छोड़ते। गौर और सरताज सिंह को 2016 में शिवराज कैबिनेट से इस्तीफा देना पड़ा था।
कहा जा रहा है कि 15-20 अफसर पूरा राज्य चला रहे हैं, इससे प्रशासनिक सिस्टम में गति नहीं आ रही है। चुनौतियों से पार पाने के लिए पार्टी के संगठन में बड़े बदलाव की बात कही जा रही है। प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान का कार्यकाल भी पूरा हो चुका है। ऐसे में भाजपा प्रदेश की कमान किसी तेजतर्रार नेता को सौंप सकती है।
मध्य प्रदेश में अब तक भाजपा को कांग्रेस नेताओं के बंटे होने का फायदा मिलता आ रहा है। अब भी नेताओं की एकजुटता मध्य प्रदेश कांग्रेस की बड़ी समस्या है। कांग्रेस वही उपचुनाव जीत सकी है, जिसे किसी एक नेता ने अपनी प्रतिष्ठा मानकर लड़ा। झाबुआ लोकसभा उपचुनाव कांतिलाल भूरिया के लिए साख का सवाल था। चित्रकूट में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी। अटेर, मुंगावली और कोलारस सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए महत्वपूर्ण थे। हालांकि, कांग्रेस नेता मानकर चल रहे हैं कि सरकार विरोधी लहर का पार्टी को फायदा होगा।