वो चार बच्चे .. जिनकी वजह से सीरिया पर ‘सितम’ शुरू हुआ ..

0
163

Team TRP

पिछले सात सालों से सीरिया भयानक गृह युद्ध की आग में झुलस रहा है. शायद ही इस तथ्य को याद किया जाता है कि इसकी शुरुआत एक छोटे भित्ति चित्र से हुई थी.

मार्च 2011 में सीरिया के दक्षिणी शहर दाराआ में चार बच्चों ने एक दीवार पर लिख दिया था कि ‘अब तुम्हारी बारी है डॉक्टर’.

तब शायद ही किसी ने कल्पना की थी कि सीरियाई राष्ट्रपति और ब्रिटेन से आंखों की डॉक्टरी की पढ़ाई किए बशर अल-असद की सत्ता के भी ट्यूनीशिया के बेन अल, मिस्र के होस्नी मुबारक और लीबिया के गद्दाफ़ी की लाइन में पहुंचने के संकेत हैं. हालांकि बाद में सीरिया की कहानी ने नई करवट ली.

सीरिया में बड़े और भयावह गृहयुद्ध की शुरुआत बहुत मामूली घटना से हुई थी. असद के सुरक्षा बलों ने भित्ति चित्र बनाने वाले चार कलाकारों के गिरफ़्तार किया था.

इन्होंने सुरक्षा बलों से अपने माता-पिता के बारे में कोई जानकारी देने से इनकार कर दिया था. दो हफ़्ते बाद दाराआ के निवासियों ने बच्चों की रिहाई के लिए विरोध-प्रदर्शन शुरू किया.

सुरक्षा बलों ने इस विरोध प्रदर्शन पर गोलीबारी कर दी और इसमें कई लोगों की जान चली गई. फिर जो हालात बिगड़ने शुरू हुए, उस पर आज तक काबू नहीं पाया जा सका है.

अब तक इस गृहयुद्ध में पांच लाख के क़रीब लोग मारे गए हैं और इसमें पहली बार ख़ून इस विरोध-प्रदर्शन में ही बहा था.

मारे गए लोगों के हर जनाज़े में विरोध का स्वर और ऊंचा होता गया. दूसरी तरफ़ वहां के सुरक्षाबलों की सख़्ती भी बढ़ती गई.

विरोध प्रदर्शन की आग होम्स, दमिश्क और इदलिब जैसे शहरों में बढ़ती गई. सीरिया में यह सब तब शुरू हुआ जब अरब के बाकी देशों में सत्ता परिवर्तन की मांग को लेकर लोग सड़कों पर आंदोलन कर रहे थे.

अरब के देशों में शासक वर्ग की वंश परंपरा के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद हो रही थी. हालांकि असद से उम्मीद थी कि वो अरब के बाकी देशों की तरह नहीं करेंगे, लेकिन उनके शासन में विरोध करने वालों पर सख़्ती की कोई सीमा नहीं रही.

यहां तक कि असद की सेना पर विद्रोहियों के ख़िलाफ़ रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल के आरोप लग रहे हैं. शनिवार को अमरीका, फ़्रांस और ब्रिटेन ने कथित रासायनिक हमले के ख़िलाफ़ सीरिया में हमला बोला.

असद की सत्ता से क्या दिक्कत?
पश्चिमी ताक़तों को लंबे समय तक लगता रहा कि असद का शासन मध्य-पूर्व में शांति और स्थिरता के लिए ठीक नहीं है. पश्चिम के देशों में एक धारणा यह बनी कि अरब के अन्य देशों की तरह सीरियाई नागरिकों के दबाव में असद सत्ता छोड़ने पर मजबूर होंगे. पर सीरिया में ऐसा नहीं हुआ.

सीरिया की बहुसंख्यक आबादी सुन्नी मुसलमानों की है जबकि असद ख़ुद शिया मुसलमान हैं. जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में मध्य-पूर्व मामलों के प्रोफ़ेसर आफ़ताब कमाल पाशा इस बात को मानते हैं कि विद्रोहियों में सुन्नियों की तादाद सबसे ज़्यादा है. असद के ख़िलाफ़ असंतोष की एक वजह सुन्नी बहुल देश में शिया शासक होना भी है.

पाशा कहते हैं, ”सीरिया की 80 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी सुन्नी है, जो विद्रोह में शामिल है और इन्हें तुर्की, सऊदी अरब, अमरीका और यूरोपीय यूनियन समेत कई देशों से समर्थन मिल रहा है. बशर अल-असद की हुकूमत ईरान का समर्थन लेकर काफ़ी मजबूत हो रही थी. दूसरी तरफ़ लेबनान में हिजबुल्लाह विद्रोही ग्रुप भी बशर अल-असद का समर्थन करता रहा है. ज़ाहिर है हिज्बुल्लाह भी शिया लड़ाकों का ही संगठन है. ईरान, इराक़, लेबनान और सीरिया में शिया सत्ता का बोलबाल है. वहीं सुन्नी देश क़तर, यूएई, सऊदी का गुट मध्य पूर्व में अलग है. सीरिया में शिया-सुन्नी के साथ तेल गैस के टकराव के कारण भी विद्रोह है.”

पाशा कहते हैं, ”सीरिया में ज़्यादातर बड़े सेना अधिकारी शिया ही हैं. असल मुद्दा ये है कि इसराइल के साथ इनका तेल को लेकर तालमेल ठीक नहीं हुआ. इसराइल 1967 से ही गोलान हाइड्रो अपने क़ब्ज़े में कर रखा है. इसे लौटाने की बातचीत बशर अल-असद और उनके पिता दशकों से करते आ रहे थे, लेकिन कभी कामयाबी नहीं मिली. इन सब कारणों से यहां विद्रोही ताक़त उभरे और कई बार तख्तापलट की कोशिश की गई, लेकिन कामयाबी नहीं मिली.”

एके पाशा मानते हैं कि बशर अल-असद से उम्मीदें थीं कि वो लोकतंत्र को मजबूत करेंगे. उन्होंने कहा, ”असद ने यूरोप से पढ़ाई की थी. उनसे कई तरह के सुधारों की उम्मीद थी. असद के कार्यकाल में आर्थिक असामनता बढ़ी है. सद्दाम हुसैन के मारे जाने के बाद वहां के शियाओं को हाथ में सत्ता गई. इस वजह से ईरान का वहां प्रभाव बढ़ा है.”

पाशा कहते हैं कि असद ने पिता की मौत के बाद सत्ता संभाली तो उम्मीद थी कि वो सभी गुटों को एक करेंगे और लोकतंत्र को मजबूत करेंगे, लेकिन वो भी अपने पिता की तरह ही साबित हुए.

शिया-सुन्नी विवाद
सुन्नी प्रभुत्व वाला सऊदी अरब इस्लाम का जन्म स्थल है और इस्लामिक दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण जगहों में शामिल है. सऊदी दुनिया के सबसे बड़े तेल निर्यातकों और धनी देशों में से एक है.

सऊदी अरब को डर है कि ईरान मध्य-पूर्व पर हावी होना चाहता है और इसीलिए वह शिया नेतृत्व में बढ़ती भागीदारी और प्रभाव वाले क्षेत्र की शक्ति का विरोध करता है.

सलमान मुख्य रूप से दो समुदायों में बंटे हैं- शिया और सुन्नी. पैग़ंबर मोहम्मद की मृत्यु के तुरंत बाद ही इस बात पर विवाद से विभाजन पैदा हो गया कि मुसलमानों का नेतृत्व कौन होगा.

मुस्लिम आबादी में बहुसंख्यक सुन्नी हैं और अनुमानित आंकड़ों के अनुसार, इनकी संख्या 85 से 90 प्रतिशत के बीच है. दोनों समुदाय के लोग सदियों से एक साथ रहते आए हैं और उनके अधिकांश धार्मिक आस्थाएं और रीति रिवाज एक जैसे हैं.

इराक़ के शहरी इलाक़ों में हाल तक सुन्नी और शियाओं के बीच शादी बहुत आम बात हुआ करती थीं.

इनमें अंतर है तो सिद्धांत, परम्परा, क़ानून, धर्मशास्त्र और धार्मिक संगठन का. उनके नेताओं में भी प्रतिद्वंद्विता देखने को मिलती है.

लेबनान से सीरिया और इराक़ से पाकिस्तान तक अधिकांश हालिया संघर्ष ने साम्प्रदायिक विभाजन को बढ़ाया है और दोनों समुदायों को अलग-अलग कर दिया है.

सुन्नी कौन हैं?
सुन्नी ख़ुद को इस्लाम की सबसे धर्मनिष्ठ और पारंपरिक शाखा से मानते हैं. सुन्नी शब्द ‘अहल अल-सुन्ना’ से बना है जिसका मतलब है परम्परा को मानने वाले लोग.

इस मामले में परम्परा का संदर्भ ऐसी रिवाजों से है जो पैग़ंबर मोहम्मद और उनके क़रीबियों के व्यवहार या दृष्टांत पर आधारित हो.

सुन्नी उन सभी पैगंबरों को मानते हैं जिनका ज़िक्र क़ुरान में किया गया है लेकिन अंतिम पैग़ंबर मोहम्मद ही थे.

इनके बाद हुए सभी मुस्लिम नेताओं को सांसारिक शख़्सियत के रूप में देखा जाता है.

शियाओं की अपेक्षा, सुन्नी धार्मिक शिक्षक और नेता ऐतिहासिक रूप से सरकारी नियंत्रण में रहे हैं.

शिया कौन हैं?
शुरुआती इस्लामी इतिहास में शिया एक राजनीतिक समूह के रूप में थे- ‘शियत अली’ यानी अली की पार्टी.

शियाओं का दावा है कि मुसलमानों का नेतृत्व करने का अधिकार अली और उनके वंशजों का ही है. अली पैग़ंबर मोहम्मद के दामाद थे.

मुसलमानों का नेता या ख़लीफ़ा कौन होगा, इसे लेकर हुए एक संघर्ष में अली मारे गए थे. उनके बेटे हुसैन और हसन ने भी ख़लीफ़ा होने के लिए संघर्ष किया था.

हुसैन की मौत युद्ध क्षेत्र में हुई, जबकि माना जाता है कि हसन को ज़हर दिया गया था.

इन घटनाओं के कारण शियाओं में शहादत और मातम मनाने को इतना महत्व दिया जाता है.

अनुमान के अनुसार, शियाओं की संख्या मुस्लिम आबादी की 10 प्रतिशत यानी 12 करोड़ से 17 करोड़ के बीच है.

ईरान, इराक़, बहरीन, अज़रबैजान और कुछ आंकड़ों के अनुसार यमन में शियाओं का बहुमत है.

इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान, भारत, कुवैत, लेबनान, पाकिस्तान, क़तर, सीरिया, तुर्की, सउदी अरब और यूनाइडेट अरब ऑफ़ अमीरात में भी इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है..
First Published On BBC

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here