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यूपी विधानसभा चुनाव में रायबरेली में समर्थक अपनी सांसद और उस समय की कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का इंतजार करते रहे कि वो आएंगी और कांग्रेस के उम्मीदवारों के समर्थन में वोट मांगेगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. फिर इस साल यानी 2018 फरवरी में एक बार फिर रायबरेली में कांग्रेस समर्थकों को फिर निराशा का सामना करना पड़ा जब सोनिया गांधी का दौरा एकदम आखिरी समय पर रद्द हो गया. कारण वही- खराब स्वास्थ्य. लेकिन समर्थकों का ये इंतजार यूपीए अध्यक्ष और रायबरेली सांसद सोनिया गांधी के अचानक बने कार्यक्रम के साथ खत्म हो गया. सोनिया गांधी अपने संसदीय क्षेत्र रायबरेली में करीब बीस महीने बाद पहुंचीं.
रायबरेली दौरे के दौरान सोनिया गांधी ने उद्घाटन और बैठक के बीच जनता दरबार लगाया, और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ लोगों की समस्याएं सुनीं. करीब डेढ़ साल बाद अपनी सांसद को पाकर रायबरेली की जनता ने उन्हें दिक्कतों से रुबरु कराया, जिस पर सोनिया ने जल्द समाधान का आश्वासन दिया. लोगों के बीच में बैठी सोनिया गांधी इस दरबार के जरिए जनता से एक बार फिर जुड़ने की जुगत में लगी है. इससे पहले इस तरह के जनता दरबार में प्रियंका गांधी बैठती थीं. चार साल पहले तक ये दरबार दिल्ली में भी लगता था जहां अपनी बातें बांटने के लिए लोग रायबरेली से आया करते थे.
इस दौरे से पहले सोनिया गांधी जून 2016 में रायबरेली गई थी. 2014 के चुनाव के बाद सोनिया गांधी को उनकी तबियत और कांग्रेस की हार ने इतना परेशान किया कि वो अपने ही संसदीय क्षेत्र से कटती रहीं. हालांकि उनकी जगह प्रियंका गांधी और राहुल गांधी समय-समय पर जाते रहे लेकिन लोगों को अपने सांसद की दूरी खलने लगी. आलम ये हुआ कि सोनिया गांधी और कांग्रेस अपने जमीनी कार्यकर्ताओं से कट सी गई. और उसका नतीजा विधानसभा चुनाव में दिखा जब रायबरेली में दस में से कांग्रेस सिर्फ दो सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई थी.
अमित शाह जाने वाले हैं रायबरेली
सोनिया गांधी का ये दौरा और जनता दरबार उस वक्त हो रहा है जब अमित शाह अमेठी की तरह ही रायबरेली में धावा बोलने वाले हैं. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह 21 अप्रैल को रायबरेली में एक रैली करेंगे. माना जा रहा है कि इस रैली में अमेठी सहित कई पड़ोसी क्षेत्रों के बीजेपी कार्यकर्ता उनके कार्यक्रमों में शामिल होंगे.
अमित शाह का ट्रैक रिकॉर्ड देखें तो जहां कहीं भी उन्हें जाना होता है, विपक्षी दलों में तोड़-फोड़ पहले से ही शुरू हो जाती है. ऐसा ही कुछ रायबरेली में भी होने की चर्चा है. जानकारी के अनुसार रायबरेली के तीन बड़े नेता कांग्रेस छोड़ बीजेपी का दामन थामने की तैयारी में है. ये तीन नेता हैं- विधायक राकेश प्रताप सिंह, एमएलसी दिनेश प्रताप सिंह और एक जिला पंचायत चेयरमैन अवधेश प्रताप सिंह. ये तीनों नेता भाई हैं और पार्टी से नाराज चल रहे हैं, उनका कहना है कि जिस वक्त पूरा माहौल पार्टी के खिलाफ था उस वक्त भी उन्होंने पार्टी का साथ दिया था, लेकिन पार्टी उन पर ध्यान नहीं दे रही है इसलिए वह पार्टी छोड़ रहे हैं. अगर ऐसा हुआ तो रायबरेली में कांग्रेस के पास सिर्फ एक विधायक बचेगा – वो विधायक भी अदिति सिंह हैं, जिन्हें कांग्रेस के नाम से कम और बाहुबली अखिलेश सिंह की बेटी के रूप में ज्यादा जाना जाता है.
रायबरेली सीट कांग्रेस की प्रमुख सोनिया गांधी की पारंपरिक सीट रही है, जो कांग्रेस की आन मानी जाती है और अवधेश प्रताप सिंह यूपी में कांग्रेस के एकलौते जिला पंचायत चेयरमैन थे. इन सब के बाद राज्य में कांग्रेस के 1 एमएलसी और छह विधायक रह जाएंगे.
रायबरेली की 10 सीटों में से महज 2 सीटें कांग्रेस के पास
बता दें कि रायबरेली में दस विधानसभा सीटें हैं. पिछले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच गठजोड़ के बावजूद रायबरेली के संसदीय क्षेत्र की चार सीटों पर एसपी और कांग्रेस आमने-सामने थी. बाकी छह सीटों पर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा था. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का गढ़ माने जाने वाले रायबरेली संसदीय क्षेत्र में विधानसभा की 10 सीटों में से बीजेपी को छह सीटें और समाजवादी पार्टी को दो सीटें मिली हैं. कांग्रेस को महज दो सीटें मिली हैं. विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने टिप्पणी की थी कि रायबरेली की छह सीटों की जीत से उत्तर प्रदेश में राजनीति को एक नई दिशा मिलेगी.
बीजेपी काफी समय से कांग्रेस को उसके ही गढ़ में मात देने की कोशिश में लगी है. रायबरेली और अमेठी गांधी परिवार का गढ़ है. राहुल गांधी साल 2004 से अमेठी लोकसभा सीट से सांसद हैं. तो वहीं, सोनिया साल 2004 से रायबरेली लोकसभा सीट से सांसद हैं. पिछले 70 साल में रायबरेली से सिर्फ तीन बार गैर कांग्रेसी सांसद चुना गया है. फिरोज गांधी और इंदिरा गांधी रायबरेली से सांसद रह चुके हैं. तो वहीं, संजय गांधी और राजीव गांधी भी अमेठी से सांसद रह चुके हैं. राजीव गांधी 1981 से 1991 तक अमेठी के सांसद रहे थे.
स्मृति ईरानी देती रहेंगी चुनौती
2014 के चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस को अमेठी में घेरने की रणनीति के तहत राहुल गांधी के सामने स्मृति ईरानी को मैदान में उतारा था. स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी को कड़ी टक्कर दी थी. हालत ये हो गई कि प्रियंका गांधी को अमेठी में डेरा जमाना पड़ा. इसके बाद कहीं जाकर राहुल एक लाख वोट से जीत सके. जबकि इससे पहले वो तीन लाख से ज्यादा वोटों से जीत हासिल की थी.
स्मृति ईरानी भले ही चुनाव हार गई, लेकिन वो पिछले चार साल से अमेठी में सक्रिय हैं. वो लगातार अमेठी का दौरा कर रही हैं और स्थानीय मुद्दों को उठाकर कांग्रेस आलाकमान को घेरती रहती हैं. स्मृति इरानी के अति सक्रियता का नतीजा था कि 2017 के विधानसभा चुनाव में अमेठी संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाली सभी सीटें कांग्रेस हार गई थी. जबकि एसपी के साथ गठबंधन करके चुनावी मैदान में थी.
विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने आपरेशन 80 लांच किया था यानी उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर विजय हासिल करने की कोशिश. दरअसल बीजेपी और सहयोगी दलों ने 2014 में 80 में से 73 सीटें जीतीं लेकिन वह कांग्रेस और यादव परिवार के गढ़ को तोड़ नहीं सके. इन्हीं 7 सीटों पर बीजेपी ने अब विशेष योजना के तहत तैयारी तेज कर दी.
लोकसभा में जिन 7 सीटों पर बीजेपी गठबंधन को हार मिली थी. उनमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की रायबरेली, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की अमेठी, एसपी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की आजमगढ़, डिंपल यादव की कन्नौज, तेज प्रताप सिंह की मैनपुरी, धर्मेंद्र यादव की बदायूं और अक्षय यादव की फिरोजाबाद लोकसभा सीटें शामिल थीं. आपरेशन 80 के तहत हर सीट के लिए संगठन से जुड़े वरिष्ठ नेताओं को इंचार्ज बनाया गया था और इन सीटों पर संगठन को बूथ स्तर तक मजबूत करने में जुटी थी.
पिछले कुछ वक्त में यहां बीजेपी रही है सक्रिय
अमेठी और रायबरेली मे बीजेपी की अति सक्रियता कांग्रेस को बाकायदा परेशान कर रही है. जब सोनिया गांधी की सरकार केंद्र में थी तब अमेठी और रायबरेली को वीवीआईपी सीटों के तहत रखा गया था और यहां की बिजली की सप्लाई कभी नहीं रुकी. अन्य विकास भी काफी हुए. कई नई योजनाओं की घोषणा भी हुई लेकिन केंद्र में सरकार जाने के बाद इन दोनों सीटों पर विकास के काम को धक्का पहुंचा. साथ ही सोनिया गांधी और राहुल गांधी के दिल्ली रहते हुए यहां के स्थानीय कार्यकर्ताओं को बांधने वाले लोग कम हो गए.
कांग्रेस नेताओं के उपेक्षा को झेल रहीं ये दोनों संसदीय सीट के लोगों के सामने स्मृति ईरानी ने अपना उदाहरण पेश किया. चुनाव हारने के बाद स्मृति ईरानी ने अमेठी के लोगों से वादा किया कि वे चुनाव भले ही हार गई हैं पर अमेठी से नाता नहीं तोड़ेंगी. पिछले चार साल में ईरानी के अमेठी दौरे राहुल गांधी से ज्यादा नहीं तो कम तो नहीं ही हुए हैं. केंद्र की तमाम योजनाएं लेकर वे अमेठी जाती रहीं. अब राज्य में भी बीजेपी की सरकार है तो उनके हाथ में देने के लिए बहुत कुछ है. लोकसभा चुनाव और फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में रायबरेली और अमेठी के लोगों में यह खूब चर्चा रही कि गांधी परिवार अब कुछ देने की स्थिति में तो है नहीं. उस पर सितम यह कि क्षेत्र के लोगों से मिलते भी नहीं. यही वजह थी कि 2017 के विधानसभा चुनाव में पहली बार गांधी परिवार के सदस्य प्रियंका को रायबरेली में काले झंडे दिखाए गए थे.
गांधी परिवार के नाम से नहीं मिलेगा वोट
2019 के आते-आते बीजेपी अमेठी की तर्ज पर अब रायबरेली में ऐसी ही चुनौती पेश करने की तैयारी में जुट गई है. इसी के तहत बीजेपी अध्यक्ष रायबरेली के दौरे पर जा रहे हैं. शाह का रायबरेली दौरा 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारियों से ही जोड़कर देखा जा रहा है. कांग्रेस में छोटी-छोटी टूट भी बीजेपी के लिए काफी मायने रखती है. बता दें कि पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने सोनिया गांधी के सामने अजय अग्रवाल को मैदान में उतारा था. मोदी लहर के बावजूद वो सोनिया के सामने कड़ी चुनौती पेश नहीं कर सके. और सोनिया ने करीब 3 लाख से ज्यादा मतों से बीजेपी उम्मीदवार को हराया था.
शाह अपनी यात्रा के दौरान रायबरेली के स्थानीय नेताओं और पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ लोकसभा चुनाव की रणनीति पर चर्चा करेंगे. उसी फीडबैक पर बीजेपी रायबरेली से सोनिया के खिलाफ मजबूत प्रत्याशी खड़ा कर सकती है. बीजेपी जानती है कि 2019 में अमेठी में राहुल गांधी की हार कांग्रेस और गांधी परिवार का मनोबल तोड़ने में जो भूमिका निभाएगी वह कोई और हार नहीं.
कांग्रेस को इस बात का एहसास हो गया है कि सिर्फ गांधी परिवार के नाम पर लोग समर्थन नहीं देंगे. इसलिए सोनिया गांधी फिर अपने संसदीय क्षेत्र में सक्रिय हो रही हैं. माना जा रहा है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के अपने गढ़ में दौरे बढ़ेंगे. हालांकि सोनिया गांधी का खराब स्वास्थ्य उनकी इस राह का रोड़ा हो सकती है. ऐसे में सोनिया को अपने गढ़ के लिए वैकल्पिक नेतृत्व का चयन जल्दी ही करना पड़ेगा.
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