यशवंत सिन्हा एक बहुत ही काबिल प्रशासनिक अधिकारी रहे, काबिल मंत्री रहे, उन्हें राजनीति की अच्छी समझ है साथ ही वे आर्थिक विषयों के अच्छे जानकार हैं. उन्हें विदेश नीति की भी अच्छी समझ रही है.
लेकिन कुछ लोग राजनीति में इसलिए होते हैं कि उन्हें हर समय राजनीति से कुछ चाहिए, यशवंत सिन्हा उन्हीं लोगों में से हैं जिन्हें हरवक्त यह अपेक्षा रहती थी कि पार्टी उनके लिए कुछ ना कुछ करती रहे.
यशवंत सिन्हा जब चंद्रशेखर की पार्टी छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में आए तब पार्टी ने उन्हें बिहार विधानसभा में विधायक दल का नेता बना दिया था.
उसके बाद जब केंद्र में बीजेपी की सरकार बनी तो उन्हें केंद्रीय मंत्री भी बनाया गया, पहले वित्त मंत्री, उसके बाद विदेश मंत्री.
इस तरह यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी उन शुरुआती लोगों में से थे जो नरेंद्र मोदी के लिए प्रधानमंत्री पद का समर्थन करते हुए दिख रहे थे.
2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त उन्होंने कहा था कि जब तक इस लोकसभा का कार्यकाल पूरा होगा तब तक मेरी उम्र 81-82 साल हो जाएगी, ऐसे में मेरे लिए राजनीतिक रूप से सक्रिय रहना बहुत ज़्यादा संभव नहीं होगा.
इसके बाद पार्टी ने उनके कहने पर उनके बेटे को टिकट दिया और बाद में बेटे को मंत्री तक बना दिया. अब जब ये दोनों बातें हो गईं तो वे कथित तौर पर चाहते थे कि पार्टी उन्हें झारखंड का मुख्यमंत्री बना दे, लेकिन पार्टी ने इसे स्वीकार नहीं किया, वजहें जो भी रही हों.
इसके बाद वे कथित तौर पर चाहते थे कि पार्टी उन्हें ब्रिक्स बैंक का चेयरमैन बना दे, पार्टी ने यह भी नहीं होने दिया. इसके बाद से ही वे लगातार पार्टी विरोधी बयान देने लगे.
हम कह सकते हैं कि हर अच्छी चीज़ का अंत होता है, आप अच्छे और योग्य व्यक्ति हैं. इसका मतलब यह नहीं कि आप बाकी लोगों का रास्ता रोक देंगे.
क्या प्रधानमंत्री मोदी उनसे नाराज थे?
यशवंत सिन्हा ने कहा है कि वे पिछले लंबे वक्त से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से वक्त मांग रहे थे, उनसे मिलकर कुछ विषयों पर चर्चा करना चाह रहे थे. लेकिन यह भी देखना होगा कि प्रधानमंत्री से वक्त मांगने से पहले वे क्या-क्या कर चुके थे.
वे पार्टी के ख़िलाफ़ हर फ़ोरम पर बोल रहे थे, लिख रहे थे. पार्टी के लोगों को पार्टी के ख़िलाफ़ तैयार करने की कोशिशें कर रहे थे. इन सब चीज़ों के बीच प्रधानमंत्री जानते थे कि वे उनसे क्यों मिलना चाहते हैं.
प्रधानमंत्री यह भी जानते थे कि यशवंत सिन्हा उनसे मुलाकात कर क्या मांगना चाहते हैं.
इस तरह अगर प्रधानमंत्री उनसे मुलाकात करते तो यशवंत सिन्हा इसका भी राजनीतिक फ़ायदा उठाने की कोशिश करते, यही वजह थी कि प्रधानमंत्री ने शायद उन्हें मिलने का वक्त नहीं दिया.
एक तरह से कहें तो 2014 में जब यशवंत सिन्हा ने पार्टी विरोधी रुख अपनाया था तभी से पार्टी ने उन्हें ख़ुद से अलग कर दिया था बस उन्हें पार्टी से निकाला नहीं था.
अब कितना राजनीतिक भविष्य बाकी?
यशवंत सिन्हा का राजनीतिक भविष्य अब महज़ एक साल का रह गया है. 2019 के चुनाव तक मोदी विरोधी जितनी भी ताकतें हैं वे उनका साथ देंगी. उनकी कोशिश रहेगी कि उनका बदला पूरा हो इसलिए वे बीजेपी के ख़िलाफ़ काम करेंगे.
अगर 2019 में बीजेपी वापिस सत्ता में आ गई तो उसी के साथ यशवंत सिन्हा के राजनीतिक करियर का भी अंत हो जाएगा. लेकिन अगर बीजेपी हार गई तो शायद वे फिर से प्रासंगिक हो जाएं और क्या पता किसी पार्टी में शामिल भी हो जाएं.
लेकिन इतना कहा जा सकता है कि उनका एक साल का राजनीतिक जीवन निश्चित रूप से बाकी है.
क्या बिहार की राजनीति पर असर पड़ेगा?
बिहार की राजनीति की बात करें तो वैसे भी यशवंत सिन्हा का कोई ख़ास महत्व नहीं हैं, वहीं झारखंड की राजनीति में हज़ारीबाग से बाहर वे किसी उम्मीदवार को जिताने का दम नहीं रखते हैं.
दूसरी बड़ी बात यह है कि जब किसी कैडर वाली पार्टी से कोई नेता अलग होता है तो उस पार्टी का कैडर उस नेता के साथ नहीं जाता. चाहें तो कल्याण सिंह, शंकर सिंह वाघेला के उदाहरण देख सकते हैं. इन सभी नेताओं का बहुत बड़ा जनसमर्थन दिखाई देता था, लेकिन पार्टी से अलग होते ही ये अलग-थलग दिखने लगे.
यशवंत सिन्हा के साथ शत्रुघन सिन्हा भी मौजूद थे, वे भी लगातार पार्टी विरोधी तेवर दिखाते रहे हैं. उनका भी जब आने वाले चुनावों में टिकट कटेगा तो वे भी राष्ट्र मंच के साथ चले जाएंगे.
लेकिन इन दोनों नेताओं को देखें तो बिहार के पिछले तीन-चार चुनाव के दौरान किसी भी चुनाव प्रचार अभियान में इन्हें नहीं बुलाया गया. संगठन में इनके लिए कोई बड़ी भूमिका नहीं रही इसलिए ये नेता बिहार की राजनीति या जदयू-बीजेपी गठबंधन को कोई खास चुनौती नहीं दे पाएंगे.